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खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २३१
(५७) प्राणीपर जो दुःख अथवा वेदना पड़ती है, उसको कोई भी बटाने में समर्थ नहीं है । वह स्वयं उसे ही भोगनी पड़ती है। अब यह उसकी बुद्धिपर निर्भर है कि उसे चाहे वह रो-पीटकर या चिल्ला कर भोग या शान्ति भावसे वरदाश्त करे। शास्त्रकारोंने तो ऐसे अवसरकेलिये यह फरमाया है कि जीवके उपर जब दुःख या मुसीवत पाये तो उसे वह शान्ति भावसे वरदाश्त करे।
(५८) यह जीव जो अशुभ कर्म अपने पुत्र, स्त्री, कुटुम्बियों, मित्र श्रादिकेलियं करता है, उनका बुरा फल वह नरक श्रादि गतियों में स्वयं भोगता है। वहाँ उसके पुत्र, स्त्री आदि कोई भी नरकके दुःखोंको भोगनेकेलिये सार्थी या सहायक नहीं होते हैं।
(५६) यह प्राणी बुरे-भले कार्य करके जो धनोपार्जन करता है, उस धनको भोगनेको तो पुत्र-मित्र आदि अनेक साथी होजाते हैं, परन्तु अपने कर्मासे उपार्जन किये हुए निर्दयरूप दुःखों के समूहको महनके लिये कोई भी साथी नहीं होता है। हे जीव ! तुझको अकेले ही सब दुःखों को भोगना पड़ेगा। यह विचारकर भव्यप्राग्मियों को उचित है कि वे अशुभ कर्मोसे सदा बचते रहे।
(६०) मनुष्य को सदा मैत्रीभावना भाते रहना चाहिये । जैसे कि संसारके प्राणीमात्र सदा आपदाओं व दुःखोंसे वर्जित हो तथा वर, पाप, अज्ञान आदिको छोड़कर सुखको प्राप्त हों।
(६१) मनुष्यका सदा करुणाभावना भाते रहना चाहिये। जैसे कि जो जीव दीनतासे तथा शोक,भय और रोगादिकी पीड़ासे