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________________ १६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय दर्शन' कहते हैं। इनके द्वारा आत्मा सर्वलोक और अलोक को प्रत्यक्ष देखता तथा जानता है । इस कारण उसको किसी प्रकारका अज्ञान नहीं रहता है। राग-द्वेपादि कषाय परिणाम आत्मामें विकार पैदा करके श्राकुलता तथा निर्बलता पैदा करते हैं। निर्बलता होनेसे खेद होता है। अतः मोहनीय और अन्तराय कर्मों के सर्वथा अभाव होनेसे किसी प्रकारका राग-द्वेष व निवलता-जनित खेद भाव भी नहीं रहता। आत्माके स्वभावके घातक सब विकार हट गए तथा स्वभावको प्रफुल्लित करनेवाले अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि गुण प्रकट होगये। इस ज्ञानके ( केवलज्ञान ) के प्रकट होते ही आत्माका यथार्थ स्वमात्र आत्माको प्राप्त हो जाता है। केवलज्ञान के साथ पूर्ण निराकुलता रहती है । इसलिये केवल ज्ञानको सुख स्वरूप कहा गया है। एक-एक इन्द्रिय एक-एक विषयको जानती है, परन्तु केवलज्ञानीकी आत्मा में सर्वज्ञानावरणीय कर्मके नाश होनसे ऐमी शक्ति पैदा हो जाती है कि आत्माकं असंळ्यात प्रदेशाम से प्रत्येक प्रदेश में सर्व ही विपयोंको एक साथ जानने की सामय है। यहाँ तक कि तीन लोककी सर्व पर्यायों को और अलोकाकाशको एक आत्माका प्रदेश जान सकता है । इस प्रकारका ज्ञान प्रात्माके असंख्यात प्रदेशोंमेंसे प्रत्येकको होता है। इस ज्ञानकेलिये इन्द्रियोंकी सहायताकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह ज्ञान पराधीन नहीं है, किन्तु स्वाधीन है। इस ज्ञानको कोई देता नहीं
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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