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खण्ड
* नवतत्त्व अधिकार -
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कारण है कि यह निज स्वभावसे पैदा हुआ है। इसमें किसी तरहकी पराधीनता नहीं है। इस सुखके भोगसे आत्मा संतुष्ट होजाता है तथा अपूर्व शान्तिका अनुभव करता है। इस सुखके मुताबिल में विषय भोगजन्य-इन्द्रियजन्य सुख हेच है, नाचीज है, अशान्तिका कारण है, तृष्णाका वर्द्धक है और कर्मबन्धका बीज है। घाती कौक नाश होजानेपर केवलज्ञानियों की जो सर्वोत्कृष्ट और निर्मल सुख प्राप्त होता है, वह विषय-भोगियोंकी तो बात ही क्या, गृहस्थ सम्यग्दृष्टियों तथा परिग्रह-त्यागी मुनियों तकको नसीब नहीं है। यद्यपि दोनोंकी जाति समान है, परन्तु उनकी उज्ज्वलता तथा बलमें अन्तर है। ज्यों-ज्यों कपाय घटता जाता है, त्यों-त्यों उज्ज्वलता बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों अज्ञान घटता जाता है, त्या-त्यों स्पष्टता बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों अन्तराय क्षय होता जाता है, त्यों-त्यों बल बढ़ता जाता है। बस, जब शुद्धता, स्पष्टता तथा पुष्टताके घातक सब आवरण हट जाते हैं, तब यह अतीन्द्रिय सुख अपने पूर्ण स्वभावसे प्रकट होजाता है और फिर अनन्तकालकेलिये वैसा ही रहता है अर्थात् एक समयकेलिये वह उससे अलग नहीं होगा और कम भी नहीं होगा। मोहनीय कमकं नाशसं अनन्त सुख. अन्तरायके नाशसे अनन्त बल, ज्ञानावरणीयक नाशसं अनन्त ज्ञान और दर्शनावरणीय कर्मक नाशसे अनन्त दर्शन प्रात्मामें उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रात्मिक ज्ञान-दर्शनको 'केवलज्ञान' और 'केवल