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________________ १६४ * जेलमें मेरा जनाभ्यास * [द्वितीय जैसे-खाज खुजानेसे खाजका रोग बढ़ता ही है, वैसे ही इन्द्रियों के भोगसे इच्छाओंका रोग बढ़ता ही जाता है। इन्द्रियों द्वारा होनेवाला सुख अशुद्ध है, पराधीन है, मोह व रागको बढ़ानेवाला है, अतृप्तिकारी है तथा कर्म-बन्धका बीज है, इसलिये त्यागनेयोग्य है। शास्त्रकारोंने यह भी बताया है कि सुख या दुःख अपने भावों में ही होता है । शरीरादि कोई बाहरी पदार्थ सुख या दुःखदायी नहीं है। जैसे-एक मनुष्य, जो कङ्कड़ोंपर सोता है, वह परम आनन्द मानता है और एक मनुष्य, जो तकिये-गद्दोपर सोता है, पर तब भी वह कष्ट महसूस करता है। इस कारण हमको अपनी मिथ्या बुद्धिको त्याग देना चाहिये कि यह शरीर, पुत्र, मित्र, स्त्री, धन, भोजन, वस्त्र आदि सुखदायी हैं । हमारी कल्पनासे ही ये सुखदायी तथा दुःखदायी भासते हैं । जैसे-जब स्त्री हमारी इच्छानुसार बनती है, तब वह सुखदायी भासती है; पर जब इच्छा-विरुद्ध कार्य करती है, तब वह दुःखदायी भासती है, इत्यादि। सच्चा आत्मिक श्रानन्द चार घाती कर्मके क्षय होनेपर स्वयं प्रकट हो जाता है । परमसुख आत्माका स्वभाव है । झानावरणीयादि चारों घाती कम शुद्ध अनन्त सुखक बाधक है। उनका जब नाश होजाता है, तब उस अात्मिक आनन्दकं प्रादुर्भावको कोई नहीं रोक सकता। यह आत्मिक सुख सब सुखोंसे श्रेष्ठ इसी
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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