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लण्ड
* नवतत्त्व अधिकार *
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है । ऐसा जानकर सांसारिक सुखको कपाय-जनित विकार मानकर तथा निजाधीन निर्विकार आत्मिक सुखका उपाय ठीक-ठीक करना कर्तव्य समझकर उस मुखकेलिये निज शुद्धात्मामें उपयोग रखकर साम्य भावका मनन करना चाहिये ।
इन्द्रियोंका सुख बिजली के चमत्कारके समान अस्थिर है। अपना चमत्कार दिखाकर वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । तथा इस मुखसे तृष्णारूपी रोग मिटने की अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है । तृष्णाकी वृद्धि निरन्तर प्राणीको संतापित करती रहती है। यह इच्छाओंका दाहरूपी ताप जगत् के प्राणियोंको निरन्तर क्लेशित किया करता है। ये प्राणी उस पीड़ाके सहने में असमर्थ होकर नाना प्रकारके उद्यम करके धनका संग्रह करते हैं । फिर धन द्वारा विषयों की सामग्री लानेकी चेष्टा करते हैं और भोगते हैं। फिर भी शान्ति नहीं पाते और तृष्णा दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है । इस कारण इन्द्रियों के सुख का भोग अधिक अाकुलताका कारण है। इस रोगकी शान्तिका उपाय अपना प्रात्मानुभव ही है।
श्रीसुपार्श्वनाथ भगवान्ने अच्छी तरह बता दिया है कि जीवोंका प्रयोजन क्षणभङ्गुर भोगोंसे सिद्ध नहीं होगा, किन्तु अविनाशी रूपसे अपने प्रात्मामें स्थिर होनेसे ही होगा। क्योंकि भोगोंसे तृष्णाकी वृद्धि होती जाती है, इस कारण ताप भी मिटता नहीं है । मतलब यह कि इन्द्रियों का सुख उलटा दुःखरूप ही है।