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________________ १६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [ द्वितीय जब द्वेष अतितीव्र हो जाता है, तब सांसारिक दु:ख अनुभव में आता है । जब किसी इष्ट विषयके मिलने में असफलता होती हैं, तब उस वियोगसे द्वेषभाव होता है कि यह वियोग हटे । जिससे परिणाम बहुत ही संक्लेश रूप हो जाते हैं। उसी समय अरति तथा शोक नोकपायका तीव्र उदय हो आता है । बस, यह प्राणी दुःखका अनुभव करता है । कभी किसी अनिष्ट पदार्थसे द्वेष भाव होता है, तब उसका संयोग न हो, यह भाव होता है । तब भय तथा जुगुप्सा नोकपायका तीव्र उदय हो आता है । इसी समय यह कपाययुक्त जीव दुःखका अनुभव करता है । कपायोंमें माया, लोभ, हास्य, रति और तीनों वेद 'राग' तथा क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा 'द्वेष' कहलाते हैं। ये कपाय रूप राग या द्वेष प्रकट रूपसे एक समय में एक झलकते हैं, परन्तु एक दूसरे के कारण होकर शीघ्र बदला बदली कर लेते हैं। जैसे- किसी स्त्रीकी तृष्णासे राग हुआ, उसके वियोग होने पर दूसरे समय में द्वेष हो गया। फिर यदि उसका संयोग हुआ तब फिर राग हो गया, इत्यादि । परिणामों में संक्लेशता द्वेषसे होती है तथा उन्मत्तता आसक्ति रागसे होती है। बाहरी पदार्थ तो निमित्त कारण मात्र है । प्रयोजन यह है कि यही अशुद्ध आत्मा कपाय द्वारा सुखी तथा दुःखी होता रहता है। शरीर सुख या दुःख रूप नहीं होता
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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