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खएड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ४३
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दूसरा आराः-इसमें दुःख होता है। इसमें पहले आरे की अपेक्षा कुछ अच्छी अवस्था होती है अर्थात् अपसर्पिणी के पांचवें आरेके सदृश अवस्था होती है।
तीसरा आरा:-इसमें दुःखमें सुख होता है अर्थात् दुःखमें कभी कभी कोई सुख हो जाता है, नहीं तो अधिकतर दुःख ही होता है। इस आरेकी अवस्था अपसर्पिणीके चौथे आरेके समान होती है । इसमें तेईस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव बलदेव, नव प्रतिवासुदेव होते हैं। ___ चौथा आराः-इसमें सुखमें दुःख होता है। अर्थात् इस बारेमें अधिकतर सुख होता है और मामूली दुःख होता है । इस आरेकी व्यवस्था अपसर्पिणीके तीसरे आरेके समान होती है। इस बारेमें २४ वें तीर्थकर और १२ वें चक्रवर्ती होते हैं।
पांचवाँ आराः-इस बारेमें सुख ही सुख होता है। इस आरेकी व्यवस्था अपसर्पिणी के दूसरे आरेके समान होती है।
छठा आरा:-इस बारेमें सुखमें सुख होता है। इस आरेकी व्यवस्था अपसर्पिणीके पहले पारेके समान होती है।
इस प्रकार उत्सर्पिणीमें भी १० क्रोडाकोड़ सागरका समय लगता है । इस प्रकार १० क्रोडाकोड़की अपसर्पिणी और १० क्रोडाकोड़की उत्सर्पिणीको मिला कर २० क्रोडाकोड़ सागरका एक कालचक्र होता है। यह काल-चक्र भरत-क्षेत्र में फिरता है।