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________________ २१६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय रत्नोंको जगह ज्ञान, दर्शन और चारित्रको समझना चाहिये । तीनों प्रकारके जीव इन रत्नोंसे व्यापार करनेकेलिये मनुष्यजन्म रूपी नगरमें आते हैं। इनमें प्रमाद न कर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि करनेवाले सर्वविरत जीव देवगतिको प्राप्त करते हैं। दूसरे प्रकारके जीव जो अप्रमादसे व्यापार कर मूल धनको सुरक्षित रखते हैं, उन्हें पुनः मनुष्य जन्म मिलता है और वे सुखभोग करते हैं। तीसरे प्रकारके जीव प्रमादके कारण-निद्रा और विकथा आदिके फेरमें पड़कर अपना मूल धन भी खो बैठते हैं। अतएव उन्हें रौरव नरककी प्राप्ति होती है। (२५) मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा, इन पाँच प्रमादोंके कारण मनुष्यको संसारमें बार-बार भटकना पड़ता है। इसलिये मनुष्यजन्म मिलनेपर धर्म-सेवनमें प्रमाद नहीं करना चाहिये। (२६) अधिक प्रारम्भ और अधिक परिग्रहसे तथा मांसाहार और पञ्चेन्द्रिय जीवके वधसे प्राणी नरकमें जाते हैं। जो लोग निःशील, निव्रत, निर्गुण, दयारहित और पञ्चक्खाणरहित होते हैं; वे मृत्यु होनेपर मातवे नरकमें नारकीके रूपमें उत्पन्न होते हैं। (२७) अहिंसाके समान कोई धर्म नहीं है, सन्तोषके समान कोई व्रत नहीं है, सत्यके समान कोई शौच नहीं है और शीलके समान कोई भूषण नहीं है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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