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खण्ड]
* मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश *
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(२८) सत्य प्रथम शौच है, तप दूसरा शौच है, इन्द्रिय-निग्रह तीसरा शौच है और प्राणीमात्रपर दया करना चौथा शौच है।
(२६) अभय दान ही सच्चा दान है, तत्त्वार्थ-बोध ही सच्चा ज्ञान है, विकाररहित मन ही सच्चा ध्यान है।
(३०) शास्त्रकारोंने कहा है कि मन ही मनुष्यके बन्धन और मोक्षका कारण है । पुरुष जिस तरह स्त्रीको आलिङ्गन करता है, उसी तरह पुत्री को भी प्रालिङ्गन करता है, किन्तु दोनों अवस्थाओं में उसकी मनः-स्थिति में जमीन-आसमान-जितना अन्तर होता है । समताका अवलम्बन कर पुरुष अनेक कर्मों के दलोंको थाई समयमें क्षय कर सकता है।
(३१) धर्मका मूल विनय और विवेक है। तप और संयम विनयपर ही निर्भर हैं। जिसमें विनय नहीं, उसकेलिये तप कैसा
और धर्म कैसा ? विनयी और विवेकी पुरुप लक्ष्मी, यश और कीतिको प्राप्त करता है। पर्वतोंमें जिस तरह मेरु, ग्रहोमें जिस प्रकार सूर्य और रत्नोंमें जिस प्रकार चिन्तामणि श्रेष्ठ है, उसी प्रकार गुणोंमें विनय और विवेक श्रेष्ठ हैं। विवेक और विनय बिना अन्य सभी गुण निगुणसे हो जाते हैं। किसीने सत्य कहा है कि जिस प्रकार नेत्रोंके बिना रूप शोभा नहीं देता, उसी प्रकार विवेक और विनय बिना लक्ष्मी शोमा नहीं देती। इस कारण प्रत्येक हितार्थी मनुष्य को विनयवान व विवेकवान् होना अत्यन्त आवश्यक है।