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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[प्रथम
अलावा अगर कोई हिंसा भूल-चूक या अज्ञानतामें होजाती है तो उसकेलिये मुनि सुबह-शाम प्रतिदिन प्रतिक्रमण, क्षमा
और पश्चात्ताप करते हैं। इस प्रकार वे सदा हर प्रकारकी हिंसासे मुक्त रहते हैं।
हिंसाका विशेष विवेचन प्रमत्त भावसे प्राणियोंके प्राणों का जो नाश किया जाता है, उसीको 'हिंसा' कहते हैं । जो प्राणी विषय अथवा कषायके वशीभूत होकर किसी प्राणीको कष्ट पहुँचाता है, वही हिंसाजनक पापका भागी होता है। इस हिंसाकी व्याप्ति केवल शरीरजन्य कष्टतक ही नहीं, पर मन और वचनजन्य कष्टतक भी है । जो विषय तथा कषायके वशीभूत होकर दूसरों के प्रति अनिष्ट चिन्तन या अनिष्ट भापण करता है, वह भी भावहिंसाका दोपी माना जाता है। इसके विपरीत विषय और कषायसे विरक्त मनुष्य के द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा भी हो जाय तो उसकी वह परमार्थहिंसा हिंसा नहीं कहलाती । मान लीजिये कि एक बालक है, उसमें किसी प्रकारकी खराब प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्तिको दूर करनेकी नातिर उसके पिता अथवा गुरु केवल मात्र उसकी कल्याण-कामनासे प्रेरित होकर कठोर वचनोंसे उसका ताड़न करते हैं अथवा उसे शारीरिक दण्ड भी देते हैं तो उसके लिये कोई भी उस गुरु अथवा पिताको दण्डनीय अथवा निन्दनीय नहीं मान सकता, क्योंकि दण्ड देते समय उनकी