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*#* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
(३) उत्तराध्ययनजी सूत्रमें कहा गया है कि एक कौड़ी के पीछे हजार रत्नोंके पिटारेको खोदेनेवाला व्यक्ति जैसा मूर्ख हैं, विषय-भोगों के पीछे इस मनुष्य जन्मरूपी रत्नपिटारेको खोदनेवाला व्यक्ति भी वैसा ही मूर्ख है ।
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( ४ ) एक कौड़ीके पीछे जीवनभर की कमाईको नष्ट कर देनेवाले 'धनदत्त' नामक सेठकी भाँति हमें सांसारिक भोगों के पीछे मोक्ष सुखको नष्ट न कर डालना चाहिये । किन्तु मोक्षके लिये प्रमादको छोड़कर उद्यम - प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि प्रमाद परम द्वेषी हैं, प्रमाद ( आत्म-विस्मरण ) परम शत्रु है, प्रमाद मुक्ति मार्गका डाकू है और प्रमाद ही नरक ले जानेवाला है । इस कारण चतुर मनुष्योंको प्रसादको त्यागकर धर्म-संवन करना चाहिये ।
(५) मोहरूपी रात्रिसे व्याकुल प्राणियों के लिये धर्म दिनोदयसूर्य के समान और सूखती हुई खेतीकेलिये वर्षाकं समान है । सम्यक् प्रकारसे आराधना करनेसे वह भव्यजनों को सुख सम्पत्ति देता है, दुर्गति में फँसे हुए प्राणियोंको बचाकर अनेक दुःखों से मुक्त करता है, बन्धुरहित मनुष्योंके लिये बन्धुसमान है, मित्र रहित केलिये मित्रसमान है, अनाथोंका नाथ है और संसार के लिये एक वत्सल रूप हैं ।
(६) जब तक शरीर नीरोग और स्वस्थ है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता, जब तक इन्द्रियोंमें शक्ति है और जब तक आयुष्य