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खण्ड] * मुमुक्षुओं केलिये उपयोगी उपदेश * २०६
क्षीण नहीं होता; तब तक समझदार मनुष्यों को आत्म-कल्याणका उपाय कर लेना चाहिये । नहीं तो घर में आग लगजानेपर कुंवा खोदने की तरह अन्तमें फिर क्या हो सकता है ?
( ७ ) किसीने सच कहा है कि मनुष्यका जीवन परिमित है अर्थात अधिक-से-अधिक सौ वर्षका है। इसमें आधा तो रात्रि के ही रूपमें बेकार चला जाता है। शेष श्राधका आधा बचपन और बुढ़ापे में बीत जाता है और बाकी जो रहता है, वह व्याधि, वियोग और दुःखमें पूरा हो जाता है।
(८) पहिले तो मनुष्यको संसारमें सुखोंकी प्राप्ति ही नहीं होती है अगर कोई सुखों को प्राप्त करता है तो वे सुख, सुखाभास (सत्यमुख ) है अर्थात् कल्पित सुख हैं। जिस व्यक्तिने थूहड़के पीछे कल्पवृक्षको खोदिया, कांचके पीछे चिन्तामणिको खोदिया, उसको 'भुवनसारी राजाके समान पछताना पड़ेगा। इस कारण मनुष्य को अपनेको नाशमान समझकर जल्दी से जल्दी अपने जीवनको सफल बनानेकेलिये अर्थात् धर्म सेवन के लिये उद्यमी करना चाहिये ।
( ६ ) सब सुखोंका प्रधान हेतु होनेके कारण धर्म ही इस संसारमें सार वस्तु है; किन्तु उसकी उत्पत्ति-स्थान मनुष्य भूमिका है, इसलिये मनुष्यत्व ही सार वस्तु हैं। इस कारण हे भव्यजनो ! मोह - निद्राका त्याग करो। ज्ञान-जागृतिसे जाग्रत होथो, प्राणघातादिका त्याग करो, कठोर वचन मत बोलो। सदा सत्य प्रिय