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________________ * ध्यानका स्वरूप * २६७ (विच्छेद ) से तथा अनिष्टके संयोग और इटके वियोगसे मनमें जो संकल्प-विकल्प पैदा होते हैं-उथल-पुथल उत्पन्न होती है, उसे 'श्रार्तध्यान' कहते हैं। इसके चार भेद हैं: १-अनिष्टसंयोग, २-इष्टसंयोग, ३-रोगोदय और ४भोगेच्छा। १-अनिष्टसंयोग-जिन प्राणियों तथा वस्तुओंसे, जैसेमर्प, सिंह, चोर. मृत्यु आदिसे अपना तथा अपने हितषियोंका बुरा तथा नुकमान होनेकी सम्भावना होती है. उनके शीघ्र नाश हो जानेमें जो चिन्तन तथा इच्छा होती है, उसे 'अनिष्टसंयोग आनध्यान कहते हैं। __ -इटसंयोग-मोहनीय कमके उदय से सुखकारी वस्तुओं सं, जैसे-सुन्दर म्री, धन. कुटुम्बकी वृद्धि, बाग-बगीचे, सवारी, नौकर-चाकर श्रादिसे देवताक समान मुम्बाकी इच्छाका करना अथवा जो भोग और उपभोग मिले हो, उनकी रहरहकर सराहना व याद करना, इत्यादि प्रकार के संकल्प विकल्पोंको 'इष्टसंयोग प्रात्तध्यान' कहते हैं। * किसी-किसी जगह 'इष्टसंयोग' नामक प्राध्यानकी जगह 'इष्ट वियोग' नामका प्राध्यान भी माना गया है। उसका अर्थ यह किया गया है कि जो पदार्थ अपनेको प्रिय मालूम देने हैं, उनके वियोग हो जानेपर मनुष्य के जो क्लेशित परिणाम होते हैं, जैसे-पुत्रके वियोगमें, धनके नाशमें, अपयश होने आदिमें, उसे 'इष्टवियोग मार्त यान' कहते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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