________________
ध्यानका स्वरूप लानका सम्बन्ध चित्त अर्थात् मनसे है। अर्थात्
- मन, वचन और कायकी हानिकारक अशुभ प्रवृत्तियोंको रोककर सुख देनेवाली शुभ प्रवृत्तियों में स्थिर रहना, कपायकं वेगको दबाना और इन्द्रियोंका निग्रह करना, 'ध्यान' कहलाता है | और एमी अवस्थामें प्रवृत्तनेवाला प्राणी 'ध्यानम्थ, ध्यानस्थित या ध्यानमग्न' कहलाता है । संक्षिप्त शब्दोंमेंअपने लक्ष्यपर चित्तको एकाग्र करना ध्यान कहलाता है।
ध्यानके सामान्य रीनिस ( १ ) शुभ और ( २ ) अशुभ. इस तरह दो और विशेष रीतिने ( १ ) पात ( ) रौद्र (३) धर्म
और ( ४ ) शुल, इस तरह चार विभाग-भेद शाम्र में किये गये हैं। इन चाम पहिले दो अशुभ और पिछले दो शुभ है।
पौदगलिक दृष्टिकी मुग्यताके किंवा प्रात्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टिकी गीणता व प्रात्मानुसन्धान दशाम जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ यान संसारका कारण और शुभ ध्यान मोक्षका कारण है।
प्रात्त ध्यान शुभ और अशुभ कर्मों के उदयमे इष्ट (अभिलषितक) योग (मिलन) से और अनिष्ट ( अनिमलपिन ) के वियोग
* "एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्"।
-उमास्वाति ।