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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *#
[तृतीय
३ - रोगोदय - संसार में समस्त प्राणी आरोग्य-सुखकी इच्छा रखते हैं । पर अशुभ वेदनीय कर्मोदयके कारण जीवको नाना प्रकार के रोगादि खड़े हो जाते हैं। उनके कारण हाय-हाय दुःख व सन्ताप करना और उनके आरामकेलिये अनेक औपधोपचार करने में तन्मग्न होना, रोगकी वृद्धिसे शोकातुर और हानिसे हर्षित होना, इत्यादि प्रकार के ख्यालातको 'रोगोदय आतं ध्यान' कहते हैं ।
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४ - भोगेच्छा - पाँचों इन्द्रियोंके विषय -संवनकी तीव्र इच्छा का होना । जैसे- श्रॉखोंसे सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों को देखने की इच्छा रखना: नाकसे बढ़िया-बढ़िया फूल और इतर सँघने की ख्वाहिश रखना; कानसे अच्छे-अच्छे गाने सुनने की अभिलाषा रखना; सुन्दर और सुस्वादु भोजन करने की इच्छा रखना; दूसरोंकी सुख व आनन्द भोगते देखकर कुढ़ना, स्पर्धा करना, इत्यादि प्रकार के विचारोंको भोगेच्छा श्रतिध्यान' कहते हैं ।
ध्यान ध्यानेवाले प्राणीमें प्रायः चार लक्षण पाये जाते हैं । यथा - १. - आक्रन्दन - रुदन करना । २-चिनमे शोक करना । ३–आँखोंसे श्रम गरना और ४- विलाप करना ।
अगर भव्य मनुष्य अनिष्टका संयोग, इष्टका वियोग, रोगादि दुःखों की प्राप्ति और भोगादि सुखोंकी अप्रामि नहीं चाहते हैं तो उनको आर्तध्यान कदापि नहीं ध्याना चाहिये । उनको ' सदा धर्मध्यान अर्थात् अच्छे व शुभ विचारोंका ध्यान करते