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________________ * कर्म अधिकार * १२१ . जीवका ज्ञानवान् होना, मूर्ख होना, नेत्र सहित होना, अन्धा होना, धनी होना, निर्धन होना, पुत्रवान् होना, पुत्रहीन होना, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी होना, शान्ति-स्वभावी, सरलस्वभावी, अहंकार रहित होना और निर्लोभी होना, स्त्री होना, पुरुष होना, या नपुंसक होना, पशु होना या मनुष्य होना, नेरिया या देवता होना, कम आयु पाना या ज्यादा आयु पाना या होते ही मर जाना, सुरूप या कुरूप होना, कमजोर या बलवान् होना, निरोगी या रोगी होना, सुखी या दुःखी होना, सुडौल या बेडौल शरीरी होना, मुख्तलिफ रंगका होना, मुख्तलिफ रसका होना, हलका होना, भारी होना, ठंढा या गरम होना, सूक्ष्म या बादर शरीरी होना, सम्यक्त्वी या मिध्यात्वी होना, दानी होना, या लोभी होना, भोग उपभोग होते हुए न भोग सकना, इत्यादि-इत्यादि बातें जो जीव मात्र में पाई जाती हैं, वे सब उसके शुभ व अशुभ कर्मोंका फत्तरूप हैं। जैसे-जैसे जीवकर्मका बन्ध करता है, वैसे-ही-वैसे उसके फल मिलते हैं अर्थात् जैसा बीज मनुष्य बोवेगा, वैसा ही फल प्राप्त करेगा । खण्ड] अब कर्मकी मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों के बारेमें वर्णन किया जाता है । कर्मकी मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं: (क) – ज्ञानावरणीय, (ख) – दर्शनावरणीय, ( ग ) - वेदनीय, (घ) - मोहनीय, (ङ) - श्रायु, (च) - नाम, (छ) - गोत्र और ( ज ) - अन्तराय | -
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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