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________________ १२० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ३-प्रारब्ध अर्थात् निःकाङ्कित कर्मों को भोगकर क्षीण कर दो। ऐसा करनेसे श्रात्मा कर्मोसे अवश्य मुक्त हो जायगी अर्थात् सिद्धगतिको प्राप्त कर लेगी। जैनदर्शनमें कर्म-बन्धके मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार कारण बतलाये हैं और कहीं कहीं संक्षेप में कषाय योग भी मिलते हैं, अगर और अधिक संक्षेप करके कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि कषाय ही कर्मबन्धका कारण है, पर उन सबको संक्षेप में वर्गीकरण करके श्राध्या त्मक विद्वानोंने उसके राग-द्वेष सिर्फ दो ही भेद किये हैं। जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही प्रबृत्तिसे अपने किये हुए जालेमें फँसती है, उसी प्रकार जीव भी अपनी बेसमझी आदि चतुराईसे अपने पैदा किये हुये कर्मजाल में फंसता है। कम के विषयमें विशेष ज्ञान वैसे तो कर्मको मूल प्रकृतियाँ, उत्तर प्रकृतियाँ और उनकी वर्गणाओंके पचास नहीं, सौ नहीं, हजार नहीं. लाख नहीं, बल्कि असंख्याते भेदानुभेद हैं । पर ज्ञानी पुरुषोंने साधारण जनसमुदाय को समझानेके हेतु कर्मको पाठ मूल प्रकृतियों और १५८ उत्तर प्रकृतियोंमें बाँट दिया है यानी यों कहना चाहिये कि अपने ज्ञानबलद्वारा समुद्र के समान ज्ञानको एक लोटेके रूप में समावेश कर दिया है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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