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खण्ड ]
* अनेकान्तवाद *
रूपसे वस्तुको सत् और असत् नहीं मानता किन्तु सत् वस्तुको वह उसके स्वभावकी अपेक्षा कहता है और असत् (अस्वभाव रूप ) अन्य वस्तुकी अपेक्षास कथन करता है । इस तत्त्वके स्पष्टीकरणार्थ ही जैनदर्शन में स्वरूप और पररूप, इन दो शब्दोंका विधान किया है। स्वरूपकी अपेक्षा वस्तुमें सत् और पररूपकी अपेक्षा असत् । इनके अलावा भाव, अभाव, नित्य, अनित्य स्वरूप ही जैनदर्शनको अभिमत है । इस विषयको चर्चा करते हुए कुछ जैन विद्वानोंने जो सिद्धान्त स्थिर किया है उसका सारांश इस प्रकार है:
१
१ - हम एक ही रूप में वस्तु सत् और असत् का अंगीकार नहीं करते, जिससे विरोधकी सम्भावना हो सके, किन्तु सत् उसमें स्वरूपकी अपेक्षा और अनंत परम्पकी अपेक्षासे है; इसलिये विरोधकी कोई आशंका नहीं ।
- मल्लिपेण सूरि ।
२ - नित्यानित्य होने से वस्तु जैसे अनेकान्त है, वैसे ही सद सत रूप होने से भी अनेकान्त है। तात्पर्य यह कि वस्तु नित्यानित्य की तरह सन् असत् रूप भी हैं। शंका- यह कथन विरुद्ध है, एक ही वस्तु सत् और असत् नहीं हो सकती, सत् असत्का विनाशक है और असत् सन्का विरोधी है। यदि ऐसा न हो तो सत् और असत् दोनों एक ही हो जावेंगे। अतः जो
सत् है वह असत् कैसे
और जो असत् है वह सत् कैसे