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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[द्वितीय
कहा जा सकता है। इसलिये एक ही वस्तुको सत् भी मानना
और असत् भी स्वीकार करना अनुचित है ? (समाधान-) यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि यदि हम एक ही रूपसे वस्तुमें सत् और असत्को अंगीकार करें तब तो विरोध हो सकता है, परन्तु हम ऐसा नहीं मानते । तात्पर्य यह कि जिस रूपसे वस्तुमें सत् है उसी रूपसे यदि उसमें असत् मानें तथा जिस रूपसे असत् है उसी रूपसे सत्को स्वीकार करें तब तो विरोध हो सकता है। परन्तु हम तो वस्तुमें जिस रूपसे सत् मानते हैं उसके भिन्न रूपसे उसमें असत्का अंगीकार करते हैं अर्थात् स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा उसमें सत् और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत् है । इसलिये अपेक्षा भेदसे सत् असत् दोनों ही वस्तुमें अविरुद्धतया रहते हैं, इसमें विरोधकी कोई आशंका नहीं है।
-रत्नप्रभाचार्य । वस्तुमात्रमें सामान्य और विशेष ये दो धर्म पाये जाते हैं। सामान्य धर्म उसके सत्गुणका सूचक है, और विशेष धर्म उसके असतगुणका सूचक । जैसे सौ घड़े हैं, सामान्य दृष्टिसे वे सब घड़े हैं; इसलिये सत् हैं। मगर लोग उनमेंसे भिन्न-भिन्न घड़ोंको पहिचानकर जब उठा लेते हैं तब यह मालूम होता है कि प्रत्येक घड़े में कुछ-न-कुछ विशेषता या भिन्नता है। यही. विशेषता या भिन्नता ही उनका विशेष गुण है। जब कोई ।