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खण्ड ]
* कर्म अधिकार *
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१ - मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग आदि निमित्तों से ज्ञानावरण आदि रूप में परिणत होकर कर्म- पुद्गलोंका श्रात्मा के साथ दूध-पानी के समान मिल जाना 'बन्ध' कहलाता है ।
२ -- उदयकाल आनेपर कर्मोंके शुभाशुभ फलका भोगना 'उदय' कहलाता है ।
३ - अबाधाकाल व्यतीत हो चुकनेपर भी जो कर्म दलिक पीछे से उदय में आनेवाले होते हैं, उनको प्रयत्न - विशेष से खींचकर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना, उसे 'उदीरण' कहते हैं ।
४ - बँधे हुए कर्मोंका अपने स्वरूपको छोड़ कर आत्मा के साथ लगा रहना 'सत्ता' कहलाता है ।
५ - जिस वीर्यं विशेष से पहले बँधे हुए कर्मकी स्थिति तथा रस घट जाता है, उसको 'अपवर्तनाकरण' समझना चाहिये ।
६ - अबाधाकाल व्यतीत हो चुकनेपर जिस समय कर्मके फलका अनुभव होता है, उस समयको 'उदयकाल' समझना चाहिये ।
७ – बँधे हुए कर्म से जितने समय तक आत्माको बाधा नहीं होती अर्थात् शुभाशुभ फलकी वेदना नहीं होती उतने समय को 'अबाधा-काल' समझना चाहिये !
८ - जिस वीर्य विशेष से कर्म एक स्वरूपको छोड़कर दूसरे सजातीय स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, उस वीर्य विशेषका नाम