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________________ १५२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [द्वितीय 'संक्रमण' है । इस प्रकार एक कर्म प्रकृतिका दूसरी सजातीय कर्म-प्रकृति रूप बन जाना भी संक्रमण कहाता है । जैसे मतिज्ञानावरणीय कर्मका श्रुतज्ञानावरणीय कर्म रूपमें बदल जाना या श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका मतिज्ञानावरणीय कर्म रूपमें बदल जाना । क्योंकि यह दोनों प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्मका भेद होने से आपस में सजातीय हैं । ६ - बँधे हुये कर्मका तप ध्यान आदि साधनों के द्वारा आत्मा से अलग हो जाना 'निर्जरा' कहलाती है । कर्मोंका स्थितिकाल-प्रमाण १ - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरकी और अबाधकाल तीन हजार वर्षका । २ - वेदनीय कर्म: - ( १ ) सातावेदनीय जघन्य दो मास ( 'इरियावद्दी' क्रियाश्रित ), उत्कृष्ट पन्द्रह क्रोड़ाक्रोड़ सागरकी और अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट डेढ़ हजार वर्षका । (२) असातावेदनीय कर्म: असातावेदनीय जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीस क्रोड़ाक्रोड़ सागर और बाधाकाल तीन हजार वर्षका ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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