SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय .................................................................................. २-यह निश्चय है कि घट असत् है, मगर अमुक अपेक्षासे; इस वाक्य द्वारा घटमें अमुक अपेक्षासे मुख्यतया नास्तित्व-धर्मका विधान होता है। __३-किसीने पूछा कि-घट क्या अनित्य और नित्य, दोनों धर्मवाला है ? उसके उत्तरमें कहना कि "हाँ, घट अमुक अपेक्षासे अवश्यमेव नित्य और अनित्य है"; इस वाक्यसे मुख्यतया अनित्य धर्मका विधान और उसका निषेध क्रमशः किया जाता है। ४-घट किसी अपेक्षासे प्रवक्तव्य है। घट अनित्य और नित्य दोनों तरहसे क्रमशः बताया जा सकता है। जैसा कि तीसरे शब्द-प्रयोगमें कहा गया है। मगर यदि क्रम विना, युगपत् ( एक ही साथ ) घटको नित्य और अनित्य बताना हो तो उसके लिये जैन-शास्त्रकारोंने नित्यानित्य या दूसरा कोई शब्द उपयोगी न समझकर इस 'श्रवक्तव्य' शब्दका व्यवहार किया है। यह भी ठीक है । घट जैसे अनित्य रूपसे अनुभवमें आता है, उसी तरह नित्य रूपसे भी अनुभवमें आता है। इससे घट, जैसे केवल अनित्य रूपमें नहीं ठहरता, वैसे ही केवल नित्य रूपमें भी घटित नहीं होता है। बल्कि वह नित्यानित्य रूप विलक्षण जातिवाला ठहरता है। ऐसी हालतमें घटके यदि यथार्थ रूपमें नित्य और अनित्य, दोनों तरहसे, क्रमशः नहीं, किन्तु एकही साथ बताना हो तो शास्त्रकार कहते हैं कि इस तरह बतानेकेलिये कोई शब्द नहीं है । अतः घट अवक्तव्य है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy