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________________ २६४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - - उनका मन चलायमान हो जाता है। यह भी सर्वथा वर्जनीय है। बहुतसे युवक या विद्यार्थी या मनुष्य दूसरे युवकों, विद्यार्थियों और मनुष्य या स्त्रियों के साथ कामचेष्टा या अनङ्गक्रीड़ा या कुचेष्टा, हन्तकम, नपुंसक-संभोग आदि अनेक प्रकारको क्रीड़ा करते हैं, वे भी सर्वथा वजनीय हैं । जो प्राणी बजाय कायसे भोग-सबनेके सिफ मनसे ही कामकी इच्छा करते हैं, वे भी मर कर नरक दुर्गतिको प्राप्त करते हैं। ____ इम्र कारण जो प्रागी अपने मनुष्य जन्मको सार्थक बनाना चाहते हैं, उन्हें अपनी स्त्रीके मिवाय पुर्ण ब्रह्मचर्य पालना चाहिये और अपनी स्त्रीस भी परिमित भोग करना चाहिये । जी न्त्री या परुप पूगा ब्रह्मचर्य पालते हैं, उन्हें कोई किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचा सकता । उनका सर्वत्र कल्यागा ही होता है। उनकी कार्ति बढ़ती है. धर्म की वृद्धि होती है, पाप नष्ट होता है और वग एवं मोक्षके मुम्बों की प्राप्ति होती है । यमशास्त्र की दृष्टिम नो ब्रह्मचर्य का पालन करना गलौकिक और पारलौकिक सुखोंका माधन है ही। इसके अतिरिक्त वैद्यक दृष्टिसे भी ब्रह्मचर्य का पालन करना जीवोंको मर्वथा हितकारक है। आयुर्वेदका एक वाक्य है: "अग्निमलं बलं पुंसां, रेताम्लं च जीवितम् । तस्माद्वाहनं च शुक्रं च, योन परिरक्षयेत् ॥" (hor
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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