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जेलमें मेरा जैनाभ्यास.
वृतीय
१३-मुनि महात्मा पुरुष सदा मन, वचन और कायको शुभ कार्यों में प्रवाते रहते हैं; सदा अपनी आत्माकी आलोचना, निन्दा करते रहते हैं; जब अन्त समय आया हुआ जानते हैं, तब 'संथारा' ग्रहण करते हैं अर्थात् प्राहार-पानीका त्याग कर शरीर की ममता छोड़ देते हैं और अपने पापोंकी निन्दा-आलोचना करते हैं। चौरासी लाख जीवयोनिसे क्षमा-प्रार्थना करके धर्म ध्यान ध्याते हुये समाधि भावसे देह त्याग करते हैं।
मुनियों में जो मुनि उत्कृष्ट ज्ञान, ध्यान, तप आदि करते हैं, उन्हें 'उपाध्याय पदवी' दी जाती है। ये उपाध्यायजी समस्त शास्रोंके उपाङ्गोंके जानकार होते हैं। अपनी अमृत वाणीसे उपदेश देकर भव्य जीवोंको प्रतिबोध करते हैं और उन्हें तारते हैं। वे ज्ञानके भंडार, दयाके सागर और भव्य जीवों को ज्ञानरूपी नेत्रके दातार होते हैं। ___जो उपाध्यायजी और भी अधिक अपने मनुष्य-जन्मको सफल बनाना चाहते हैं. वे विशेष पुरुषार्थ और पराक्रम फोड़ते हैं और 'प्राचार्य पद' को प्राप्त करते हैं।
प्राचार्यजी ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपमाचार और वीर्याचार आप पालते हैं और दूसरोंको पलवानेका प्रयत्न करते हैं। वे छत्तीस गुणों और पाठ संपदाओंसे युक्त होते हैं।
मुनि, उपाध्याय और प्राचार्य जो कि उत्कृष्ट कतव्यपालनमें संलम है अर्थात् तीव्र, तपस्या, ज्ञान और ध्यान करते