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________________ २७६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय - सर्वदयालु मनुष्य का चित्त एक ऐसी शान्तिका अनुभव करता है. जो अन्यत्र दुष्प्राप्य है। ___ साधु लोग जहाँ तक हो सकता है, नहीं ही बालते हैं। यदि बोलनेकी अति आवश्यकता ही प्रान पड़े तो बोलत है, लेकिन बहुत थोड़ा । उतना ही, जितनेस कि मतलब हल हो जायअल्पाक्षर बह्वर्थ + फिर भी बोलने समय महपर कपड़ा लगा लेने हैं । क्यों ? इसीलिये कि महकी भाफमे सूक्ष्म जीव उसी तरह भस्म हो जाते हैं. जिस तरह कि किमी विशालकाय अजगर के साँस छोड़ने स-पुकार मारने-मुंहकी विपाक भाफसे हम लोग भस्म हो जाते हैं। श्रावकका आठवाँ वन 'अनर्थदण्ड वन है। इसकी तीमग गुणवत भी कहते है। इसका अर्थ है-बेमतलब पापकी क्रियाएं न करना । संमार में प्रागी प्रारम्भ, परिग्रह, मोह, माया इत्यादिमे फैस रहा है। गृहस्थकालय इन सब का मवथा त्यागना बड़ा मुशकिल है। कांकि मनुष्य मंमारमें रहता है। उसे अपने शरीर. कुटुम्ब श्राश्रितीकी रक्षा व पालन-पापगमें छह कायक जीवोंकी हिंसा अर्थान प्रारम्भ करना अनिवाय है तो भी प्रारम्भ * साधुओंके इस गुणका नाम 'वाग्गुप्त' है। + साधुओंके इस गुणका नाम 'भाषाममिति' है। * साधुओंके इस कपड़े का नाम 'मुँहपत्ति है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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