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________________ ग्वण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २७७ जिस कदर कम हो सके, उतना कम करना चाहिये और सदा यह अभिलाषा रखनी चाहिये कि वह कौन सा दिन होगा कि मैं सर्व प्रकारकं प्रारम्भ-परिग्रहसे अलहदा हुँगा और सदा हृदयसे पश्चानाप करते रहना चाहिये । इस प्रकार जो ज़रूरी आरम्भ अर्थात पाप किया जाता है. वह अर्थदण्ड है। पर जा बिना कारण अर्थात जिसमे किसीका स्वार्थ तो सर नहीं और फिजूलमें प्रारम्भ अर्थान पाप हो, उसे 'अनर्थदण्ड' कहते हैं। यह अनर्थ दण्ड अनेक प्रकार का होता है. पर शास्त्रका ने इसका निम्न लिखित पाँच * भागोंमें बाँट दिया है। ( १ ) पापोपदेश--हिंसाकारी वचन बोलना, जिसमें जीवोंका वध एमी नरकीय बताना, जिमम जीवों का महा अनर्थ हो । म---शगाव एम बननी है, जत्रा ने बला जाना है, विष से तैयार किया जाता है. खटमल या मच्छर इस प्रकार मारे जाने हैं। इत्यादि बात आत्महितार्थी मनुष्यकलिए सर्वथा वजनीय है। * • पावसाहेमा दानार याजदु:श्रताः पञ्च । माहः प्रमादचामन दगडानदग इधराः।।" --स्वामी समन्तभद्राचार्य । अर्थात् १-पादेश, २-हिंसादान, ३-अपभ्यान, ४-दुःश्रुति और ५-प्रमादचर्या, ये पोच अनर्थदण्ड अनर्थदण्ड के त्यागी महात्माोंने बनाये हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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