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जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
तृतीय
(२) हिंसादान-अस्त्र-शस्त्र या और प्रकारके हथियारोंका बनाना, दान देना जिससे जीवोंका घात हो। ऐसा करना भी मनुष्यकेलिये वर्जनीय है।
(३) अपध्यान-बुरा ध्यान, बुरे विचार करना । जैसे अमुक आदमीने मुझे गालियाँ दी थीं सो अच्छा हो, उसका लड़का मर जाय, उसके घरमें आग लग जाय, उसका दिवाला निकल जाय, उसे जेलखाना हो जाय, वह मुकद्दमा हार जाय, उसका माल-असबाब, मकान बाढ़ में डब जाय, इत्यादि ।
ऐसा विचारनेसे प्राणीको कुछ मिलता तो है नहीं, पर वह अशुभ कर्मोंका बन्ध उससे अवश्य करता है । इस कारण ऐसे विचार व ख्यालात कदापि मनमें नहीं आने देने चाहिये ।
(४) दु:श्रुति-चित्तको बिगाड़नेवाले विचारोंको खराब करनेवाले शास्त्रोंको-उपदेशोंको पढ़ना-सुनना। जैस-गन्दे उपन्यासोंका पढ़ना-सुनना या ऐसे ही बेमतलबकी बातें जिनमें भरी हों, ऐसे व्याख्यानोंका सुनना-सुनाना ।
(५) प्रमादचा-असावधानीसे ऐसे कार्य करना, जिससे लाभ तो कुछ हो नहीं, और दूसरोंको तकलीफ पहुँचे हो। जैसे-मार्गमें चले जा रहे हैं और अकौश्रा आदि वनस्पतिको वेत मारते जा रहे हैं, जिससे वे कट-कट कर नीचे गिरते जा