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________________ * मनप्य-जीवन की सफलता * १५-सरशोषण-सिंचाईकलिये नदी, नालाब या सरोबरमे जल इकट्ठा करना। उपगेन तमाम भोगापभोग और कमादानों का त्याग करानेका शास्त्रकागेका केवल यही मन्तव्य है कि उन पदार्था-वस्तुओं का उपयोग व उन व्यापारों या धन्धों को नहीं करना चाहिये, जिनमें विशेष हिंमा होती हो। हिंसा करना मानो संसारको बढ़ाना है। इस कारगा मनुष्य का जिम प्रकार हो सके, उस प्रकार अल्प-सं-अल्प हिंमा करते हुये मनुष्य-जीवनको साथक बनाना चाहिय। हमें कोई मारे. पोटे. पेले. गेंद, पीसे, दवावे तो उसमें जैसे द में कष्ट अनुभव होता है, वैसे ही सभी जीवों का होता है। प्रत्येक प्रागाका अपने महश ही दुमरे व्यक्तियों के प्राण समझने चाहिये। इसीलिय शास्त्र में कहा गया है कि 'आत्मवत सर्वभूतेषु, यः पश्यनि स पण्डितः ।' अर्थात विद्वान वही है जो अपने सम्ब-दुःख के समान दृसगक सुख-दुःम्बका ध्यान रखता हो । ___ मनुष्यको जब इस बात का ख्याल हो जायगा, तब वह अपनेही-आप अपने सब काम ऐसे करंगा या करना चाहेगा कि जिसमें दृमराको तकलीफ न हो। ऐसे विचारशील दयाद्रपरिणामी मनुष्य को विशेष पुण्य-बन्ध होता है और उसके दिल में क्रोधमान-माया-लोभ श्रादि आत्म-शत्रु अपना वाम नहीं करते । वह जीव जगन हितेषी और अकारण जगढन्धु होता है। ऐसे
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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