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________________ १७२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय गमन करता हुआ सिद्ध क्षेत्रमें चला जाता है--इधर-उधर नहीं मुड़ता। एक शरीरको छोड़कर कर्म-परवश जीव दूसरी जगह जहाँ जाता है, वहाँ वह सबसे पहले पुद्गल वर्गणाएं ग्रहण करता है। उस वर्णना-पिण्डमेंसे वह अपना शरीर रचना प्रारम्भ करता है। ऊपर हम सात प्रकारके जीव बता पाये हैं। उनमेंस जीव जब अाहारवर्गणा, शरीरवर्गणा, इन्द्रियवर्गणा, स्वासोच्छवासवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणाके पूर्ण पुद्गलोंको प्राप्त कर लेता है, तब वह 'पर्याप्त' कहलाता है। और जब इनके पूर्ण करनेके पहले ही मृत्युको प्राप्त कर लेता है, तब वह 'अपर्याप्त' कहलाता है। इस प्रकार जीवोंके सात अपर्याप्त और सात पर्याप्त मिलाकर चौदह भेद होते हैं। जब जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जाता है, तब वह प्रथम उस 'पिण्ड' को ग्रहण करता है जिससे कि वह अपना शरीर आदि बनावेगा। उसके इस पिण्डको 'आहार' कहते हैं। फिर उससे वह अपना शरीर बनाता है । उसके बाद इन्द्रियाँ बनाता है। इसके बाद उसके श्वासोच्छ्रास चलते हैं। फिर भाषा प्राप्त करता है और सबके अन्त में मन प्राप्त करता है। जब तक जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण नहीं करता है, तब तक वह 'अनाहारक' रहता है । जीव कम-से-कम एक समय
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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