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________________ ३५२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास - [तृतीय आत्म-बल प्रकट करते हैं कि अन्तमें वे मोहको सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थानको प्राप्त कर ही लेते हैं। जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्तिका है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्तिका है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानको पानेवाली आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरती है और बारहवें गुणस्थानको पानेवाली उससे कदापि नहीं गिरती, बल्कि ऊपरको ही चढ़ती है । किसी एक परीक्षामें नहीं पास होनेवाला विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रतासे योग्यता बढ़ा कर फिर उस परीक्षाको पास कर लेते हैं, उसी प्रकर एक बार मोहसे हार खानेवाली आत्माको अप्रमत्त-भाव व आत्म-बलकी अधिकतासे फिर माहको अवश्य क्षीण कर देती है। उक्त दो श्रेणीवाली प्रात्माओंकी तर-तम-भावापन्न श्राध्यात्मिक विशुद्धि, मानों परमात्मभाव-रूप सर्वाच्च भूमिकापर चढ़नकी दो नसेनियाँ हैं। जिनमेंसे एकको जैनशास्त्र में 'उपशम श्रेणी' और दूसरीको 'क्षपक श्रेणी' कहा है। पहिली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ानेवाली है। पहिली श्रेणीसे गिरनेवाला जीव आध्यात्मिक अधःपतनके द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाय, पर उसकी वह अधःपतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी-न-कभी वह फिर दूने बलसे और दूनी सावधानीसे तैयार होकर मोह शत्रुका सामना करता है और अन्तमें दूसरी श्रेणीकी योग्यता प्राप्त कर माहका सर्वथा क्षय कर डालता है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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