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________________ खण्ड ] * गुणस्थानका अधिकार * ३५३ व्यवहारमें अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रुको फिर से हरा सकता है। परमात्म-भावका स्वराज्य प्राप्त करनेमें मुख्य बाधक मोह है । जिसको नष्ट करना अन्तरात्मभाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोहका सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैनशास्त्र में 'घातिकर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापतिके मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकोंकी तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर क्या देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्मभावका पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूपको पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय ज्ञान, चारित्र श्रादिका लाभ करता है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुखका अनुभव करता है । जैसे पूर्णिमाकी गतमें निरभ्र चन्द्रकी सम्पूर्ण कलाएँ प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्माकी चेतना आदि सभी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस भूमिकाको जैनशास्त्रोंमें तेरहवाँ गुणस्थान कहा है। इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद श्रात्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणोंकी अर्थात् अप्रधानभूत अघाति कर्मोंको उड़ाकर फेंक देनेकेलिए 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान' रूप पवनका आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारोंको सर्वथा रोक देती है । यही आध्यात्मिक विकासकी
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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