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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
तृतीय
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पराकाष्ठा किंवा चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें आत्मा 'समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शक्लध्यान' द्वारा सुमेरुकी तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्तमें शरीरत्याग-पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टिसे लोकोत्तर स्थानको प्राप्त करता है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थकी अन्तिम सिद्धि है और यही अपुनरावृत्ति स्थान है। क्योंकि संसारका एक मात्र कारण मोह है, जिसके सब संस्कारोंका निश्शेष नाश हो जानेके कारण अब उपाधिका संभव नहीं है।
ऊपर आत्माकी जिन चौदह अवस्थाओंका विचार किया है उनका तथा उनके अन्तर्गत-अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओंका बहुत संक्षेप ( मुख्तसर ) में वर्गीकरण करके शास्त्रकारोंने शरीर धारी आत्माकी सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं:
१-बहिरात्म-अवस्था २-अन्तरात्म-अवस्था और ३परमात्म-अवस्था।
१-पहिली अवस्थामें आत्माका वास्तविक विशुद्ध रूप अत्यन्त आच्छादित रहता है, जिसके कारण प्रात्मा मिथ्याध्यास वाला होकर पौद्गलिक विलासोंको ही सर्वस्व मान लेता है और उन्हींकी प्रापिकेलिये संम्पूर्ण शक्तिका व्यय करता है। ____२-दूसरी अवस्थामें आत्माका वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट नहीं होता, पर उसके ऊपरका प्रावरण गाढ़ा न होकर