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________________ खण्ड] * गुणस्थानका अधिकार * ३५५ शिथिल, शिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासोंकी ओरसे हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसीसे उसकी दृष्टिमें शरीर आदिकी जीर्णता व नवीनता अपनी अर्थात् आत्माकी जीर्णता व नवीनता नहीं है। यह दूसरी अवस्था ही तीसरी अवस्थाका दृढ़ सोपान है। ३-तीसरी अवस्थामें आत्माका वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके ऊपरके घने श्रावरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं। निम्नलिखित गुणस्थान इन तीन प्रात्माओंमें पाये जाते हैं: पहिला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म-अवस्था का चित्रण है। चौथेसे बारहवें तकके गुणस्थान अन्तरात्मअवस्थाका दिग्दर्शन है और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान परमात्मअवस्थाका वर्णन है। गुणस्थानोंका संक्षेपमें वर्णन पूर्व-पूर्व गुणस्थानकी अपेक्षा उत्तर-उत्तर गुणस्थानमें ज्ञान आदि गुणोंकी शुद्धि बढ़ती जाती है,अशुद्धि घटती जाती है। अतएव आगे-आगेके गुणस्थानों में अशुभ प्रकृतयोंकी अपेक्षा शुभ प्रकृतियाँ अधिक बाँधी जाती हैं और अशुभ प्रकृतियोंका बन्धन क्रमशः रुकता जाता है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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