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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
गुणस्थानका अर्थ मोह और योगके निमित्तसे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्ररूप आत्माके गुणोंकी तारतम्यरूप (हीनाधिकतारूप) अवस्था-विशेषको गुणस्थान कहते हैं।
चौदह गुणस्थानोंके नाम १-मिथ्यादृष्टि, २-शास्वादन सम्यकदृष्टि, ३-सम्यगमिथ्यादृष्टि मिश्र, ४-अविरति सम्यग्दृष्टि, ५-देशविरत, ६प्रमत्तसंयम, ७-अप्रमत्तसंयम, --निवृत्त अपूर्वकरण, :अनिवृत्ति बादरसम्पराय, १०-सूक्ष्मसम्पराय, ११-उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ. १२-क्षीणकपाय वीतरागद्मस्थ, १३-सयोगी केवली और १४-अयोगी केवली गुणस्थान ।
१-पहिला गुणस्थान संसारके समम्त अध:पतित आत्माओं में पाया जाता है अर्थात् नरक, तिर्यंच मनुष्य और देवगतिमें भी पाया जाता है या यों कहना चाहिये कि मिथ्यात्वी जीवमात्रमें पाया जाता है। इस गुणस्थानका जीव अनन्त समय तक भ्रमण करता रहता है।
२-दूसरा गुणस्थान-सम्यग्दृष्टिसे मिथ्यादृष्टिमें आनेमें जिसना अल्प-से-अल्प समय लगता है, उस समयमें जीव इस गुणस्थान-अवस्थामें रहता है। जो जीव इस गुणस्थानको स्पर्श
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