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अवश्य, क्योंकि कोई भी ध्यान हो, अधिक-से-अधिक होता वह अन्तर्मुहूर्त तक ही है । अन्तर्मुहूर्तके बाद अवश्य ही कोई दूसरा
ध्यान हो जायगा । इससे अधिक किसीका भी मन एक विषयपर स्थिर नहीं रह सकता। लेकिन फिर भी वह चिरकाल तककी ध्यानसन्तति व्यवहार में एक ही ध्यान कहलाता है ।
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खण्ड
* ध्यानका स्वरूप *
* " उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिशेधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्"
- उमास्वाति ।