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________________ ३२० * जलमें मेरा जनाभ्यास * [तृतीय किसी निश्चित समय तक ही किया जाता है और दूसरा ध्यान वह होता है जो कि जीवोंके व्यवहारनयसे महीनों रहता है। तीनों संध्याओं में जो सामायिक किया जाता है: पिण्डस्थ पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत जो ध्यानके भेद पूर्व में कहे जा चुके हैं, वे मेस्मरेजम, प्राणायाम आदि सब ध्यान 'अल्पकालीन' हैं। क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्गृष्टिको जो सांसा रिक अन्य अनेक कार्य करते हुए भी आत्मा का ध्यान बना रहता है. वह बीमार की जबतक बीमारी दूर न हो जाय तब तक और अनेक कार्य करते हुए जो अपनी बीमारीका ध्यान बना रहता है, वह किसी अभिमानीको अन्य अनेक कार्य करते हुए भी अपने मानापमानका जो हर समय ध्यान- ख्याल बना रहना है. वह: श्रीरामचन्द्रजीको सीताके वियोग में छह महीने तक इट वियोग' नामका ध्यान बना रहा और उसमें उनकी यह हालत हो गई कि वे जंगल के वृत्तों से पूछते फिरे कि आपने क्या मेरी सीता देखी है ? यह उसी तरह श्रीदेवीको भी श्री कृष्ण के वियोग में छह महीने तक 'वियोग' नामका धार्तव्यान बना रहा और जिसकी वजह से श्रीबलदेव जी श्रीकृष्णके शत्रको छह महीने तक कन्धेपर घरे फिरे और उसे हिलाते घुलाते और खिलाते-पिलाते रहे, यह: इत्यादि सब 'चिरकालीन' ध्यान है। इस 'चिरकालीन' ध्यानके बीच में अन्य अनेक ध्यान होजाते है
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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