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खण्ड] * भगवान महावीरके बादका जैन-इतिहास * ४६ के समय जैनसमाज एक सुसंगठित, सुन्दर और उदार दल था। जिसमें लाखों श्रावक, श्राविकायें और हजारों साधु व साध्वियाँ थीं। इनके अलावा करोड़ों जनता सामान्य रीतिसे जैनधर्मको मानने वाली थी। ___ भगवान् महावीरके निर्वाणके तीसरी या चौथी शताब्दीके अनुमान अनुदार जैन समाजमें कुछ मतभेद पड़ना प्रारम्भ होगया, जो दिनोंदिन बजाय घटनेके कुछ बढ़ता ही गया। भगवान्के निर्वाणकी छठी शताब्दीमें मथुरामें एक सभा हुई। उस सभामें जब निर्ग्रन्थोंके वस्त्र पहनने या न पहननेका प्रश्न उपस्थित हुआ, उसी समय वहाँपर दो दल हो गये। एक ने तो समयकी परिस्थितिके अनुकूल वस्त्र पहननेकी व्यवस्था दी और दूसरेने नग्न रहनेकी। ऐसे विवादग्रस्त समयमें दीर्घदर्शी स्कन्दिलाचार्यने बड़ी ही बुद्धिमानीसे काम लिया। उन्होंने न तो नमताका और न वस्त्र-पात्र-वादिताका ही समर्थन किया । प्रत्युत दोनोंके बीचमें उचित न्याय दिया। उन्होंने कहीं भी सूत्रोंमें जिनकल्प, स्थविरकल्प, श्वेताम्बर तथा दिगम्बरका उल्लेख नहीं किया। फिर भी उस समय प्रत्यक्ष रूपसे उदार जैनसमाज दो दलोंमें विभक्त हो ही गया।
इस प्रकार एक पिताके दो पुत्र अपना हिस्सा बॉटकर अलग-अलग हो गये। पिताके घरके बीच में दीवार बनाना प्रारम्भ कर दिया। दोनों सम्प्रदाय महावीरको अपनी-अपनी सम्पत्ति