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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
तृतीय
करता है। वहाँपर भी धर्ममें बुद्धिको दृढ़ करके चतुर्थ गुणस्थानके योग्य जो अपनी अविरत अवस्था है उसको नहीं छोड़ता हुआ भोगोंका सेवन करते हुए भी धर्मध्यानसे देवायुको पूर्ण कर, स्वर्गसे आकर तीर्थंकर श्रादि पदको प्राप्त कर, पूर्वजन्ममें भावित की हुई जो विशिष्ट-भेद-ज्ञानकी वासना है उसके बलसे मोहको नहीं करता है और मोहरहित होनेसे श्रीजिनेन्द्रकी दीक्षाको धारण कर पुण्य तथा पापसे रहित जो निज-पर आत्मा का ध्यान है. उसके द्वारा मोक्षको जाता है। और जो मिथ्यादृष्टि है, वह तो तीव्र निदानबन्धक पुण्यसे चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण श्रादिके समान भागोंको प्राप्त कर नरकको जाते हैं। पुण्य प्रकृति तेरहवें गुणस्थान तक लगी हुई हैं। पुण्य की प्रशंसा शास्त्रों में अनेक स्थानपर की है। इस कारण श्रादरनेके स्थानपर आदरणीय है और मोक्ष होते समय त्याग ता उनका स्वयं ही हो जाता है।
पाप अशुभ परिणामोंसे युक्त जीव पाप रूप होता है। दूसरे शब्दोंमें यो कहना चाहिये कि जिस कर्मका फल दुःख रूप हो, उसे पाप कहना चाहिये । पाप कर्मो से जीव अनादि कालसे घिरा हुआ है । यह कर्म आत्माको मलीन कर देते हैं । इसका बाँधना बड़ा सरल है, पर इसका परिणाम भोगना बड़ा दुष्कर है। शास्त्रकारोंने पापको लोहेकी बेड़ीसे उपमा दी है।