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खण्ड ]
* नवतस्त्व अधिकार #
३७६
समस्त लोक अशुभ कर्म अर्थात् पापके पुद्गल ठसाठस भरे हुये हैं । जब कोई जीव अशुभ कर्म अथवा पाप करता है तो अशुभ कर्मोंके रज रूपी पुद्गल उसकी आत्मा के प्रदेशोंपर मिट जाते हैं, वे उसी समय या समय आनेपर अपना अशुभ फल देते हैं ।
अज्ञानी व भोले प्राणी पापको हँस-हँसकर बाँध लेते हैं, पर इसके परिणामसे उनका रो-रो कर भी पीछा नहीं छूटता है ।
प्राणी प्रथम भावपाप करता है, तत्पश्चात् द्रव्यपाप करता है । अशुभ प्रकृति परिणमन रूप द्रव्यपाप कर्म है । वह श्रात्माके ही अशुभ परिणामोंका निमित्त पाकर उत्पन्न होता है ।
शास्त्रकारोंने पापके अठारह भेद फरमाये हैं । वे निम्न प्रकार हैं:
१ - प्राणातिपात अर्थात् जीवकी हिंसा करना ।
२ - मृषावाद अर्थात् असत्य - झूठ बोलना ।
३ - अदत्तादान अर्थात् बग़ैर दी हुई वस्तु लेनीचोरी करना ।
४ - मैथुन अर्थात् कुशीलका सेवन करना ।
५ - परिग्रह अर्थात् द्रव्य - धन आदि रखना और ममता बढ़ानी ।
६ - क्रोध अर्थात् अपनेको तपाना-कोप करना । -मान अर्थात् अहङ्कार ( घमण्ड ) करना ।
८- माया अर्थात् कपट, ठगई इत्यादि करना ।