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________________ ३८० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय ६-लोभ अर्थात् तृष्णा बढ़ाना-गृद्धिपणा रखना। १०-राग अर्थात् स्नेह रखना-प्रीति करना । ११-द्वेष अर्थात् अनिच्छित वस्तुपर घृणा करना। १२-कलह अर्थात् क्लश करना । १३-अभ्याख्यान अर्थात् झूठा कलक्क लगाना । १४-पैशून्य अर्थात् दूसरोंकी चुगली खाना । १५-पर-अपवाद अर्थात् दूसरोंकी निन्दा करना । १६-रति-अरति अर्थात् पाँचों इन्द्रियोंके तेईस विषयोंमेंसे इच्छित वस्तुपर प्रसन्न होना और अनिच्छित वस्तुपर अप्रसन्न होना। १५-मायामृषावाद अर्थात् कपटसहित झूठ बोलनाकपटमं भी कपट करना। ___१८-मिथ्यादर्शनशल्य अर्थात् कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धा रखना। जो अज्ञानी प्राणी उपरोक्त अठारह पापोंका सेवन करते हैं, उनको निम्नलिखित बयासी कर्म-प्रकृतियाँ भागनी पड़ती हैं: ज्ञानावरणीयकी पाँच, दर्शनावरणीयकी नौ, वेदनीयकी एक, मोहनीयकर्मकी छब्बीस, आयुष्यकर्मकी एक, नामकर्मकी चौंतीस, गोत्रकर्मकी एक और अन्तरायकर्मकी पाँच । इस प्रकार बयासी प्रकृतियाँ होती हैं। इनका वर्णन 'कर्म अधिकार' में है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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