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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
सामर्थ्यकी बात नहीं है । यह प्राण पाँच दिनका अतिथि है, यह समझकर किसीपर गग-द्वेष न करना चाहिये । स्व और परअपने और परायेका तो प्रश्न ही बेकार है-अरण्य-रोदनकी भाँति है। दैवको उपालम्भ देनेसे भी क्या लाभ ? समुद्रके श्रवगाहनकी कल्पनाकी भाँति बेकार है। मनुष्यको स्व और परका रूप जानना चाहिये।
(१६) ऐ अभिमानी प्राणी ! जराको जर्जरीभूत करनेमें और मृत्युपर विजय प्राप्त करने में जब आजतक किसीको सफलता नहीं मिली, तब तुझे अब कैसे मिल सकती है ?
(१७) हे जीव ! तू , मैं कर्ता, मैं हर्ता, मैं धनी, मैं गुणी इत्यादि प्रकारके मिथ्याभिमान मत कर । वास्तवमें मनुष्य न तो कर्ता है
और न हर्ता । जो कुछ है सो कर्म है। जीव तो अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोके फलको भोगनेवाला है। इसलिये इस संसारम यदि तुझे सुख भोगनेकी अभिलापा है तो तुझे एक शुभ कर्म ही करना चाहिये। ___ (१८) शास्त्रकारोंने सच कहा है कि जब बुरे दिन प्राते हैं अर्थान् अशुभ कर्मका उदय होता है तब सुधा विपकी तरह, रम्सी सर्पके समान, बिल पातालके समान, प्रकाश अन्धकारके समान, गोष्पद सागरके समान, सत्य असत्यके समान और मित्र शत्रुके समान हो जाते हैं। इस प्रकार विचारकर विचारशील पुरुपोंको धैर्यसे काम लेना चाहिये।