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________________ २२२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय धर्मकी आराधनामें सदा तत्पर रखना चाहिये । धर्माराधनाका अवसर मिलनेपर विवेकी पुरुषको उसमें किसी भी कारणसे प्रमाद न करना चाहिये । हे बन्धुओ ! इस असार संसारमें केवल एक धर्म ही सार है। इसलिये धर्मकी ही आराधना करनी चाहिये। (३५) हे भव्य प्राणियो ! अगर यथार्थमें इस संसारमें देखा जाय तो सिवाय दुःखके सुखका लेश मात्र भी नहीं है । प्राणियों के लिये जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख है, अप्रियांका संयोग भी दुःख है, प्रियांका वियोग भी दुःख है, इच्छा करनेपर स्त्री-सन्तान-धन आदि वस्तुओंके न मिलनेपर भी दुःख है । संक्षेपमें यों कहना चाहिये कि जिधर देखो उधर दुःख-ही-दुःख दिखाई पड़ता है । इस कारण अगर बन्धुओ ! दुःखोंसे बचना है और मुखकी चाह है तो इस अपार संसार-सागरमें मूल्यवान् महारत्नकी भांति मनुष्य-जन्मको शुभ कर्मा अर्थात् धर्म द्वारा सफल बनाना परम श्रावश्यक है । हे महानुभावो ! तत्त्वज्ञान अर्थात् धार्मिक ज्ञानके बिना सांसारिक विद्याओंका ज्ञान भी व्यर्थ है। जिस प्रकार शील-रहित सुन्दर स्त्री प्रशंसा-योग्य नहीं होती। (३६) शास्त्रकागेंने कहा है कि अनेक जन्मों तक तप करनेसे भी जो कम क्षीण नहीं होते, वे समता भावक अवलम्बन करनेसे गीत नीया मरने ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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