________________
२७०
* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
रहती हैं। उन सबका पूर्ण करना अत्यन्त कठिन है, कठिन ही नहीं सम्भव भी है। मनुष्य यदि उन इच्छाओं को पूर्ण करने में लग जाय तो वह सारी उम्र इसी में व्यतीत कर दे। फिर भी यह संभव नहीं कि उन्हें वह पूर्ण कर ले। जबतक मनुष्य को इच्छाएँ सताती रहती हैं, तबतक वह व्याकुल -- दुःखित रहता है । इच्छा के अभाव में जीवको निराकुलता मुत्र प्राप्त होता है । असल में निराकुलता ही सुख है। एक कविका वाक्य है
'तमको हित है सुख, सोनख
कता बिनु कहिये ।
कविवर सुरदासजी ।
मनुष्यकी इच्छाएँ अनन्त - अपरिमित हैं। उन सबका पूर्ण होना अशक्य है। और जबतक वे पूर्ण न हो जायें तबतक मनुष्यको चैन नहीं | ऐसी हालत में यही होना चाहिये - मनुष्य को सुखी होने का - चैनसे जीवन व्यतीत करने का एक ही मार्ग है। और वह मार्ग यही है कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को परि मिन कर ले। कितना परिमित कर ले ? जितनेसे आसानीसे काम निकल जाय उतना परिमित कर ले अर्थात अपनी
अर्थात etre artis प्राशारूपी गड्डा इतना बड़ा है कि उसमें समस्त संसार एक परमाणुके बराबर है तो फिर बनलाचो कि किसके हिस्से में कितना थाना चाहिये ? इसलिये जीवकी विषयाभिलाषा व्यर्थ है । ( क्योंकि वह किसी भी हालत में पूरी नहीं हो सकती ।)