SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास # [तृतीय क्रियाः २४ -- मिध्यात्वका कार्य करना व करनेवालेको उस कार्यमें दृढ़ करना मिध्यादर्शन क्रियाः २५ - संयमको बात करनेवाले कर्मके उदयसे संयम रूप नहीं प्रवर्त्तना अप्रत्याख्यान क्रिया । ये पचीस क्रियाएँ आस्रवकी कारण हैं । बन्ध इस तत्त्वका वर्णन 'कर्म अधिकार' में किया जा चुका है । संवर जिस प्रकार छिद्र सहित नौका जो समुद्र में पड़ी हुई है. उसके छिद्र बन्द कर देने से जलका आना बन्द हो जाता है; उसी प्रकार संसार रूपी समुद्र में जो आत्मा रूपी नौका पड़ी हुई है, जिसके छिद्र रूपी श्रस्रवको रोकनेसे कर्म रूपी जल नहीं आता है। इस कर्मागम द्वारके रोकनेको 'संवर' कहते हैं । अर्थात् श्रस्रवके निरोधको संवर कहते हैं । जो पुरुष संवर धारण करता है, उसका यह कर्त्तव्य है कि वह पाप रूपी जलका अर्थात् मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय आदिका सर्वथा लोप करके संयम अवस्था अर्थात् शुभ भावना, शुभ विचारों का ध्यान - चिन्तन करे । संवर धारण करनेसे मनुष्य अपने संसारको कम करता है । शास्त्रकारोंने संवर के सामान्य प्रकारसे बीस भेद कहे हैं और विशेष प्रकारसे सत्तावन भेद कहे हैं, जो निम्न प्रकार हैं: -- "अस्त्रवनिरोधः संवरः " -उमास्वाति ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy