________________
खण्ड
* नवतत्त्व अधिकार *
१७६
-
देवलोकके देव बारह जातिके, ७-लौकान्तिकदेव नव प्रकारके, ८-अवेयकदेव नव प्रकारके और अनुत्तरदेव पाँच प्रकारके हाते हैं । इस प्रकार कुल देव निन्यानवे जातिके होते हैं। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद होनेसे देवताओंके कुल भेद एक-सौ अदानवे होते हैं। ___ इस प्रकारसे नरकके १४, तिर्यञ्चके ४८, मनुष्य के ३०३ और देवक १६८ कुल मिलकर सब ५६३ भेद जीवके हुए । ___ लोगोंके मनमें प्रायः यह शङ्का उत्पन्न होती रहती है कि यहाँ जो जीव एक छोटेसे शरीरमें होता है, वही बड़े शरीरमें कैसे व्याप्त हो जाता है ? इसका उत्तर यह है कि एक जीवके प्रदेश लोकाकाशके समान है अर्थात् जीव असंख्य-प्रदेशी हैं। जीवके असंख्यात प्रदेश दीपककी रोशनीक समान संकोच-विस्तार-शील होते हैं। उन्हें जैसा आधार-प्राश्रय-शरीर प्राप्त हो जाता है, वे वैसे ही संकोच-विस्ताररूप हो जाते हैं। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि जिस प्रकार दीपककी रोशनी एक छोटी-सी कोठरीमें होती है और वही दीपक अगर किसी बड़े कमरे में रख दिया जाय तो रोशनी तमाम कमरेमें फैल जाती है। इसी प्रकार श्रात्मा अर्थात जीवका स्वभाव है।
जीवके प्राण १-जिस शक्तिके निमित्तसे प्रात्मा प्राण धारण करे, उसको 'जीवत्वगुण' कहते हैं।