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खण्ड ]
* कर्म अधिकार #
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विशेष, जो कषायके निमित्तसे आत्माके साथ चिपके हुए होते हैं, वह 'द्रव्यकर्म' कहलाता है।
जैनदर्शन में जिस धर्मकेलिये कर्म शब्द इस्तेमाल होता है, उस अर्थके अथवा उससे कुछ मिलते-जुलते अर्थकेलिये जैनेतर दर्शनोंमें ये शब्द मिलते हैं- माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, संस्कार, देव. भाग्य आदि ।
जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म मानते हैं, उनको पुनर्जन्म की सिद्धि-- उपपत्तिकेलिये कर्म मानना ही पड़ता है । कर्मका स्वरूप
मिथ्यात्व कषाय आदि कारणोंसे जीवके द्वारा जो किया जाता है, वही 'कर्म' कहलाता है। कर्मका पहिला लक्षण उपर्युक्त भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनोंमें घटित होता है। क्योंकि भावकर्म आत्माका - जीवका - वैभाविक परिणाम है । इससे उसका उपादान रूप कर्त्ता जीव ही है, और द्रव्यकर्म जो कि कार्मण जातिके सूक्ष्म पुद्गलों का विकार है, उसका भी कर्त्ता निमित्त रूपसे जीव ही है । भावकर्मके होनेमें द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है। इस प्रकार उन दोनों में आपस में बीज अङ्कुर की तरह कार्य कारण भाव सम्बन्ध है । -
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कर्म स्वयं जड़ पदार्थ है । 'कर्मपुद्गल' उसको कहते हैं, जिनमें रूप, रस, गंध और स्पर्श हों और पृथ्वी, पानी, अमि