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जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास कब हम जैन ग्रन्थोंके अनुकूल जैनधर्मकी प्राचीनता
G पर पाठकोंका ध्यान दिलाना चाहते हैं । जिस संसार में हम लोग रहते हैं उसके बनने तथा स्थापित होनेके समयसे
और उसके नाश होनेके समय तकको एक 'कालचक्र' कहते हैं। इस कालचक्रके दो विभाग हैं-एक अपसर्पिणी दूसरा उत्सर्पिणी । हर सर्पिणीमें छह छह ारे होते हैं। अपसर्पिणीके छह आरे इस भाँति होते हैं-पहला सुषमा-सुषमा, दूसरा सुषमा, तीसरा सुषमा-दुष्षमा, चौथा दुष्षमा-सुषमा, पाँचवाँ दुष्षमा और छठा दुष्षमा-दुष्षमा।
उत्सर्पिणीके छह आरे इस प्रकार होते हैं-पहला दुषमा-दुष्षमा, दूसरा दुष्षमा, तीसरा दुष्षमा-सुषमा, चौथा सुषमा दुष्षमा, पाँचवाँ सुषमा, छठा सुषमा-सुषमा।
एक काल-चक्रमें अथवा अपसर्पिणी और उत्सर्पिणी के बारहों प्रारोंमें २० करोड़ाकरोड़ (२० करोड़से २० करोड़ का गुणा करके जो गुणनफल आवे उतने) सागरका समय लगता है। यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी मालूम होता है कि एक सागरमें कितना समय होता है ? जैसे दिन व रात यहाँ-तिरछे लोग