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खण्ड
* जैनधर्मकी प्राचीनता *
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'पौरुपकरणं कचिदाहुः कर्मस मानवाः । देव के प्रशंसन्ति, स्वभावमपरे जनाः ॥४॥ पौरुपं कर्म देवं च, कालवा तस्वभावतः । त्रयमेतत् पृथकभूतमविवक त केचन ।। ५ ।।
तदा व नवं च. न जाने नान तथा । बप्रस्तावपया वय . समस्था: समर्शिनः ॥ ६॥"
शा०प० अ० २३८ ० २४४ इन भाकों में ग्रन्थकमान पुरुषार्थ, कर्म, स्वभावदाद आदिका उल्लेख कर छ रला कामे जैनधर्माभिमत स्याद्वादक मूलभूत सप्तमझानयका बसन किया है। छठे श्लोक जी (कमस्थाः) पद है, उनकार अर्थ जन होता है. ऐसा ही टीकाकारने किया है।
हम अपने बन्धुपांक इतना और भी स्मरमा करा देना चाहते हैं कि जनमतकी प्राचीनता अथवा अर्वाचीनताके लिये हमें किली प्रकार का आग्रह नहीं। हमारे विचारानुसार प्रत्येक मतमें अपेक्षाकृत प्राचीनता और नवीनता बनी हुई है। अतः वह ( जैनमत) आज उत्पन्न हुआ हो या हजारों वपसे, इसपर हमें कुछ विवाद नहीं, किन्तु बाल्मीकि रामायण और व्यासमहाभारतके जमानम जैनधर्मका अस्तित्व नहीं था या उसके बाद निकला, यह बात हमें किसी प्रकार उचित नहीं प्रतीत होती ।