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________________ १०४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय .......... . ARAA. वस्तुतः सब शरीरमें एक आत्मा सिद्ध नहीं होती है, प्रत्येक शरीरमें आत्मा भिन्न-भिन्न ही.है तथापि सब आत्माओंमें रही हुई समान जातिकी अपेक्षासे कहा जाता है कि सब शरीरोंमें आत्मा एक है। व्यवहार-यह नय वस्तुओंमें रही हुई समानताकी उपेक्षा करके, विशेषताकी ओर लक्ष्य खींचती है। इस नयकी प्रवृत्ति लोक-व्यवहारकी तरफ़ है । पाँच वर्णवाले भवरेको काला भँवरा बताना इस नयकी पद्धति है। रास्ता आता है, कूडा झरता है, इन सब उपचारोंका इस नयमें समावेश हो जाता है। ऋजुसूत्र-यह नय वस्तुमें होते हुए नवीन-नवीन रूपान्तरोंकी ओर लक्ष्य आकर्षित करता है। स्वर्णका मुकट, कुण्डल आदि जो पर्यायें हैं, उन पर्यायोंको यह नय देखता है। पर्यायके अलावा स्थायी द्रव्यकी ओर यह नय द्रगपात नहीं करता है । इसीलिये पर्यायें विनश्वर होनेसे सदा स्थायी द्रव्य इस नयकी दृष्टि में कोई चीज़ नहीं है। शब्द-इस नयका काम है, अनेक पर्याय शब्दोंका एक अर्थ मानना । यह नय बताता है कि कपड़ा, वस्त्र, वसन आदि शब्दों का अर्थ एक ही है। ___ समभिरूढ़-इस नयकी पद्धति है कि पर्याय शब्दोंके भेद से अर्थका भेद मानना । यह नय कहता है कि कुम्म, कलश, घट आदि शब्द मिन्न अर्थवाले हैं, क्योंकि कुम्भ, कलश, घट आदि
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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