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________________ १६८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय - कोई-कोई आत्माको सर्वव्यापक भी मानते हैं। उनके लिये यह कहा गया है कि जब ज्ञान विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है तब ज्ञानकी धनी आत्मा भी विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है। जिस प्रकार आँखकी पुतली अपने स्थानपर रहती हुई भी बिना स्पर्श किये बहुत दूरसे भी पदार्थोंको जान लेती है, ऐसे ही ज्ञान आत्माके प्रदेशोंमें ही रहता है, तथापि विपयोंकी अपेक्षा सर्व लोकालोकको जानता है। यद्यपि आत्मा निश्चयसे असंख्यात-प्रदेशी है, तथापि किसी भी शरीरमें रहा हुआ संकोचरूप शरीर-प्रमाण रहता है । मोन अवस्थामें भी अन्तिम शरीरस किंचित् कम आकार रखता है, सदा स्थिर रहता है। जब जीव समुद्घात करता है अर्थात् शरीर में रहते हुए भी फैलकर शरीरके बाहर उसके प्रदेश जाते हैं तब भी जैसा प्रात्मा फैलता-सिकुड़ता है, वैसे ही उसके ज्ञानादि गुण रहते हैं। आत्माके प्रदेश अन्य छह समुद्घातोंमें थोड़ी-थोड़ी *"मन सरिमळडिय, उत्तरदहस्त जोयपिंडम्म । णिग्गमणं दहादा, हदि समुग्धादयो णाम ॥" अर्थात् मृत शरीरको न छोड़ने हुए दूसरे शरीरको स्पर्श करने के लिये जो श्रान्म-प्रदेश शरीरसे बाहर जाते हैं और फिर मूल शरीर में पुनः पा जाते हैं, उसे 'समुद्धात' कहते हैं ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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